सवेक - स्वामी एक मत, मत में मत मिली जाय |
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय ||
सवेक और स्वामी की पारस्परिक मत मिलकर एक सिद्धांत होना चहिये | चालाकी करने से सच्चे स्वामी नहीं प्रसन्न होते, बल्कि उनके प्रसन्न होने का कारण हार्दिक भक्ति - भाव होता है |
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय |
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ||
सन्त कबीर जी समझाते हुए कहते हैं कि अपने सतगुरु के न्यायपूर्ण वचनों का उल्लंघन कर जो सेवक अन्ये ओर जाता है, वह जहाँ जाता है वहाँ उसके लिए काल है |
आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल |
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ||
आशा तो स्वर्ग की करता है, लकिन तीनों काल में दुर्बुद्धि से रहित नहीं होता | बलि ने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा अनुसार नहीं किया, तो राज्य से वंचित होकर पाताल भेजा गया |
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय |
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ||
गुरुजनों को अपना हार्दिक उपदेश सच्चे सवेक को ही देना चहिये | सेवक ऐसा जो सिर पर आरा सहकर भी, दूसरा भाव न लाये |
शीलवन्त सुरज्ञान मत, अति उदार चित होय |
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ||
शीलवान ही देवता है, उसका विवेक का मत रहता है, उसका चित्त अत्यंत उदार होता है | बुराईयों से लज्जाशील सबसे अत्यंत निष्कपट और कोमल ह्रदय के होते हैं |
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत |
सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत ||
ज्ञान से पूर्ण, अभिमान से रहित, सबसे हिल मिलकर रहने वाले, सत्येनिष्ठ परमार्थ - प्रेमी एवं प्रेमरहित सबका आदर - भाव करने वाले |
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुवंग |
कहैं कबीर बिसरै नहीं, यह गुरुमुख को अंग ||
गुरुमुख सेवक व शिष्य को चहिये कि वह सतगुरु के उपदेश की ओर देखता रहे जैसे सर्प मणि की ओर देखता रहता है | गुरु कबीर जी कहते है कभी भूले नहीं येही गुरुमुख का लक्षण है |
गुरु आज्ञा लै आवहीं, गुरु आज्ञा लै जाय |
कहैं कबीर सो सन्त प्रिये, बहु विधि अमृत पाय ||
जो शिष्य गुरु की आज्ञा से आये और गुरु की आज्ञा से जाये| गुरु कबीर जी कहते हैं कि ऐसे शिष्य गुरु - सन्तो को प्रिये होते हैं और अनेक प्रकार से अमृत प्राप्त करते हैं |
सवेक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय |
कहैं कबीर सेवा बिना, सवेक कभी न होय ||
जो सवेक सेवा करता रहता है वही सेवक कहलाता है, गुरु कबीर कहते हैं कि सेवा किये बिना कोई सेवक नहीं हो सकता |
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय |
ज्यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिछाय ||
जिन्हें स्वरूपस्तिथि (कल्याण)में प्रेम नहीं है, वे विषय - मोह में सुख से सोते हैं परन्तु कल्याण प्रेमी को विषय मोह में नींद नहीं लगती | उनको तो कल्याण की प्राप्ति के लिए वैसी ही छटपटाहट रहती है, जैसे जल से बिछुड़ी मछली तडपते हुए रात बिताती है |
चतुराई रीझै नहीं, रीझै मन के भाय ||
सवेक और स्वामी की पारस्परिक मत मिलकर एक सिद्धांत होना चहिये | चालाकी करने से सच्चे स्वामी नहीं प्रसन्न होते, बल्कि उनके प्रसन्न होने का कारण हार्दिक भक्ति - भाव होता है |
सतगुरु शब्द उलंघ के, जो सेवक कहुँ जाय |
जहाँ जाय तहँ काल है, कहैं कबीर समझाय ||
सन्त कबीर जी समझाते हुए कहते हैं कि अपने सतगुरु के न्यायपूर्ण वचनों का उल्लंघन कर जो सेवक अन्ये ओर जाता है, वह जहाँ जाता है वहाँ उसके लिए काल है |
आशा करै बैकुंठ की, दुरमति तीनों काल |
शुक्र कही बलि ना करीं, ताते गयो पताल ||
आशा तो स्वर्ग की करता है, लकिन तीनों काल में दुर्बुद्धि से रहित नहीं होता | बलि ने गुरु शुक्राचार्य जी की आज्ञा अनुसार नहीं किया, तो राज्य से वंचित होकर पाताल भेजा गया |
यह मन ताको दीजिये, साँचा सेवक होय |
सिर ऊपर आरा सहै, तऊ न दूजा होय ||
गुरुजनों को अपना हार्दिक उपदेश सच्चे सवेक को ही देना चहिये | सेवक ऐसा जो सिर पर आरा सहकर भी, दूसरा भाव न लाये |
शीलवन्त सुरज्ञान मत, अति उदार चित होय |
लज्जावान अति निछलता, कोमल हिरदा सोय ||
शीलवान ही देवता है, उसका विवेक का मत रहता है, उसका चित्त अत्यंत उदार होता है | बुराईयों से लज्जाशील सबसे अत्यंत निष्कपट और कोमल ह्रदय के होते हैं |
ज्ञानी अभिमानी नहीं, सब काहू सो हेत |
सत्यवान परमारथी, आदर भाव सहेत ||
ज्ञान से पूर्ण, अभिमान से रहित, सबसे हिल मिलकर रहने वाले, सत्येनिष्ठ परमार्थ - प्रेमी एवं प्रेमरहित सबका आदर - भाव करने वाले |
गुरुमुख गुरु चितवत रहे, जैसे मणिहि भुवंग |
कहैं कबीर बिसरै नहीं, यह गुरुमुख को अंग ||
गुरुमुख सेवक व शिष्य को चहिये कि वह सतगुरु के उपदेश की ओर देखता रहे जैसे सर्प मणि की ओर देखता रहता है | गुरु कबीर जी कहते है कभी भूले नहीं येही गुरुमुख का लक्षण है |
गुरु आज्ञा लै आवहीं, गुरु आज्ञा लै जाय |
कहैं कबीर सो सन्त प्रिये, बहु विधि अमृत पाय ||
जो शिष्य गुरु की आज्ञा से आये और गुरु की आज्ञा से जाये| गुरु कबीर जी कहते हैं कि ऐसे शिष्य गुरु - सन्तो को प्रिये होते हैं और अनेक प्रकार से अमृत प्राप्त करते हैं |
सवेक सेवा में रहै, सेवक कहिये सोय |
कहैं कबीर सेवा बिना, सवेक कभी न होय ||
जो सवेक सेवा करता रहता है वही सेवक कहलाता है, गुरु कबीर कहते हैं कि सेवा किये बिना कोई सेवक नहीं हो सकता |
अनराते सुख सोवना, राते नींद न आय |
ज्यों जल छूटी माछरी, तलफत रैन बिछाय ||
जिन्हें स्वरूपस्तिथि (कल्याण)में प्रेम नहीं है, वे विषय - मोह में सुख से सोते हैं परन्तु कल्याण प्रेमी को विषय मोह में नींद नहीं लगती | उनको तो कल्याण की प्राप्ति के लिए वैसी ही छटपटाहट रहती है, जैसे जल से बिछुड़ी मछली तडपते हुए रात बिताती है |
Thanks for share this information
ReplyDeletehttps://www.onestatus.site